पत्रकारिता के समक्ष सबसे बड़ा संकट विश्वसनीयता

लोकतंत्र,राजकाज की यदि सबसे अच्छी व वांछित प्रणाली मानी जा रही है तो स्वतंत्र प्रेस या मीडिया उसकी आत्मा और पहचान कही जा सकती है। विधायिका,कार्यपालिका और न्यायपालिका की एक समान व्यवस्था होने के बावजूद यदि प्रेस स्वतंत्र न हो तो उसे लोकतांत्रिक राज्य नहीं माना जा सकता। यही कारण है कि मीडिया लोकतंत्र का चौथा खम्भा कहा जाता है। राजनीतिक,सामाजिक,सांस्कृतिक और आर्थिक विकास में मीडिया की भूमिका को देखते हुए हर लोकत्रांत्रिक समाज में स्वतंत्र,निष्पक्षा एवं जीवंत प्रेस को मान्यता दी जाती है, उसके संरक्षण और प्रोत्साहन के कानूनी और दूसरे उपाय किए जाते हैं। प्रेस या मीडिया की स्वतंत्रता की गारंटी तभी हो सकती है जबकि उसका संचालन करने वाले और उसमें जुड़े संपादक, पत्रकार और संवाददाता अपने दायित्व व धर्म का निवाह करने को पूरी तरह स्वतंत्र हों।लेकिन आज एक तरफ जहां संचार क्रांति के चलते समाचारों के प्रचार प्रसार के नये नये माध्यम सामने आ रहे हैं वहीं नई चुनौतियां भी सामने आ रही है। संचार क्रांति ने मीडिया के स्वरूप को बदल कर रख दिया है।इसलिए तीसरे प्रेस आयोग की मांग लंबे समय से उठ रही है।पिछले कुछ समय में भारत में मीडिया का परिदृश्य पूरी तरह बदल गया है। इलेक्ट्रॉनिक मीडिया और इंटरनेट आधारित मीडिया को ध्यान में रखकर अध्ययन होना चाहिए। इसके लिए तीसरे प्रेस आयोग का गठन किए जाने की आवश्यकता है।उसके बाद नियमन के लिए कानून बनाया जाना चाहिए।

वर्तमान दौर में पत्रकारिता के समक्ष सबसे बड़ा संकट उसकी विश्वसनीयता है और इसका प्रमुख वजह पत्रकारों का वित्तीय रूप से परतंत्र होना है। जिस पत्रकार की नौकरी और उसका वेतन सुरक्षित नहीं है, वह पत्रकार स्वतंत्र नहीं हो सकता। इसलिए पत्रकार की सामाजिक सुरक्षा भी आवश्यक है। असल में प्रथम प्रेस आयोग ने भारत में प्रेस की स्वतंत्रता की रक्षा एंव पत्रकारिता में उच्च आदर्श कायम करने के उद्देश्य से एक प्रेस परिषद की कल्पना की थी। परिणाम स्वरूप चार जुलाई 1966 को भारत में प्रेस परिषद की स्थापना की गई जिसने 16 नवंबर 1966 से अपना विधिवत कार्य शुरू किया।तब से लेकर आज तक प्रतिवर्ष 16 नवंबर को राष्ट्रीय प्रेस दिवस के रूप में मनाया जाता है।विश्व में आज लगभग 50 देशों में प्रेस परिषद या मीडिया परिषद है। भारत में प्रेस को वाचडॉग एंव प्रेस परिषद इंडिया को मोरल वाचडॉग गया है। स्वाधीनता के बाद देश के विकास में प्रेस की भूमिका के महत्व को समझते हुए इसकी स्थिति व अवस्था तथा श्रमजीवी पत्रकारों की कार्य की दशाओं की जांच पड़ताल कर उसकी बेहतरी के उपाय सुझाने के लिए सरकार की ओर से दो प्रेस आयोग गठित किए जा चुके हैं। पहला आयोग न्यायमूर्ति राजाध्यक्ष की अध्यक्षता में 1950 के दशक के प्रारंभ में बना।दूसरे का गठन दूसरे का गठन आपातकाल के बाद जनता पार्टी की सरकार ने मई 1978 में गठित किया था। इसके अध्यक्ष न्यायमूर्ति पीके गोस्वामी थे। मोरारजी देसाई सरकार के पतन के बाद न्यायमूर्ति गोस्वामी ने परंपरा के अनुसार इस्तीफा दे दिया था। बाद में पुनः सत्ता र्में आई इंदिरा गांधी की सरकार ने 1980 में न्यायमूर्ति के के मैथ्यू के नेतृत्व में पूरा आयोग ही बदल दिया। मैथ्यू आयोग ने 1982 में अपनी रपट दी।

प्रथम प्रेस आयोग ने प्रेस की स्वतंत्रता,पत्रकारिता के मानकों को बनाए रखने की व्यवस्था, प्रेस के स्वामित्व के स्वरूप , भाषाई और क्षेत्रीय अखबारों के प्रोत्साहन के तरीकों आदि पर विचार कर 1954 में प्रस्तुत अपनी रपट में बहुत सी महत्वपूर्ण सिफारिशें कीं। भारतीय प्रेस परिषद, श्रमजीवी पत्रकार अधिनियम और समाचार पत्रों के महापंजीयक की स्थापना जैसे अनेक सुझाव और सिफारिशें प्रथम प्रेस आयोग की उपलब्धियां हैं।दूसरे प्रेस आयोग की सिफारिशों ने लोगों को निराश किया। आयोग ने बदलते हालात में प्रेस और मीडियाकर्मियों की स्वतंत्रता के समक्ष नयी उभरती चुनौतियों की एक तरह से अनदेखी कर दी। न्यायमूर्ति मैथ्यू उन जजों में थे जिन्होंने आपातकाल का समर्थन किया था। उन्होंने प्रेस की आजादी की एक ऐसी अवधारणा प्रतिपादित की जिसमें ‘सरकार को प्रेस के नियमन की और अधिक छूट दे दी गयी।‘ प्रेस की स्वतंत्रता को मीडिया कंपनी यानी उसके शेयरधारकों की स्वतंत्रता मान ली गयी।यह तय है कि 1954 की परिस्थितियां 1982 तक आते आते बिल्कुल बदल गयी थीं। इसी तरह 1982 पर विचार करें तो 1995 एक नये युग का सूत्रपात कराता दिखेगा। बाजार और प्रौद्यागिकीय परिवर्तनों से उत्पन्न युगांतकारी बदलावों के साथ साथ मीडिया के स्वरूप और स्वामित्व में पहले से अधिक बदलाव आ गए। व्यावसायिक हितों में टकराव का मुद्दा पहले की तरह या उससे भी कहीं अधिक गंभीर हो कर खड़ा हुआ है। आजदी के समय पत्र पत्रिकाओं की संख्या 6000 के करीब थी जो बढ़ कर एक लाख से भी अधिक हो गयी है। वीडियो समाचार पत्रिका से शुरू हुए निजी टीवी कार्यक्रमों के प्रसार आज केबल टीवी, उपग्रह टीवी से होते हुए डिजिटल टीवी तक पहुंच चुकी है।

तीसरे प्रेस व मीडिया आयोग को प्रिंट के अलावा,टीवी, रेडियो और डिजिटल तथा सोशल मीडिया, इन सब का अध्ययन एवं विश्लेषण कर इनके लिए यथोचित मानकों और नियमों एवं नयी मार्गदर्शक एवं अपीलीय संस्थाओं की स्थापना की सिफारिशें और सुझाव प्रस्तुत करने की जिम्मेदारी दी जा सकती है। नया मीडिया आयोग इसलिए भी जरूरी है क्यों कि मीडिया अभिव्यक्ति का स्वतंत्र और खुला माध्यम न रह कर निहित स्वार्थ सिद्धि का साधन बनता जा रहा है।मीडिया घरानों में संपादक की स्थिति और हैसियत बदल गयी है।पत्रकारों के काम की दशाओं में आज भारी अंतर आ गया है। नयी नयी प्रौद्योगिकी के आने से वे एक से अधिक प्रकार के काम करने लगे हैं। इस सबसे बढ़ कर यह हुआ है कि अखबारी कंपनियों ने वर्किग जर्नलिस्ट एक्ट के प्रावधानों को किनारे लगा दिया है। इनकी भर्तियों में ठेका व्यवस्था का बोलबाला है और ठेके पर रखे गए पत्रकारों की नौकरी को किसी प्रकार का कानूनी संरक्षण नहीं रह गया है।उनसे यूनियन में शामिल न होने का गैरकानूनी बांड भरवाया जाता है।मीडिया प्रतिष्ठानों में अब ज्यादातर भर्तियां डिजिटल संस्करणों के लिए है और उनमें काम करने वालों की स्थिति कानूनी दृष्टि से निरीह है।कर्मचारियों के वेतनमान में संशोधन पर मजीठिया वेतन आयोग की सिफारिशों की ज्यादातर अखबारों ने अनदेखी कर दी है।वर्किंग जर्नलिस्ट एक्ट में संशोधन कर के टीवी, रेडियो, और डिजिटल तथा मोबाइल पत्रकारिता:मोजो के मीडिया कर्मियों को इसके दायरे में लाना समय की मांग है।

प्रेस व मीडिया के सामने इन चुनौतियों को समझने तथा उनके समाधान के रास्ते निकालने के लिए इसके संचार व  परिचालन के स्वरूप तथा इसमें समय समय पर कानूनी, प्रौद्योगिकी और आर्थिक कारणों से होने वाले बदलावों का अध्ययन-विश्लेषण जरूरी है। इस प्रसंग में मीडियाकर्मियों की कार्य की दशाओं को समझना सबसे महत्वपूर्ण है। पत्रकारों के कार्य की दशाओं का अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता से चोली दामन का संबंध है। स्वतंत्र रूप से कार्य के अनुकूल दशा के बिना प्रेस की स्वतंत्रता की बात का कोई वास्तविक अर्थ नहीं रहता। इसका सीधा संबंध लोकतंत्र की गुणवत्ता से भी है।इसलिए तीसरे प्रेस आयोग का गठन जरूरी है। गंभीर विषय यह है कि पूरा टीवी/डिजिटल बिना किसी नियामकीय व्यवस्था के चल रहा है। इन्हें सरकार लाइसेंस देती है। इस तरह वे सरकार के सीधे नियंत्रण में हैं। कोई ऐसी स्वतंत्र नियामकीय संस्था नहीं है जो इन्हें लाइसेंस दे सके या इनका पंजीकरण और विनियमन करे। केबल टीवी नेटवर्क रेगुलेशन अधिनियम के तहत कोई मजिस्ट्रेट उनकी मशीन उपकरण जब्त कर सकता है।

ये ऐसे कुछ ज्वलंत विषय हैं जो भारत में प्रेस और मीडिया के स्तर को सीधे प्रभावित कर रहे हैं। इसका प्रभाव हमारी लोकतांत्रिक प्रणाली और प्रक्रिया पर पड़ रहा है। चुनावों के दौरान पैसा लेकर रपट प्रकाशित करने की शिकायतें, विज्ञापन को खबर के रूप में प्रकाशित करना,कंपनियों की खबर प्रकाशित करने के लिए कमर्शियल समझौते करना तथा ब्रांड प्रोमोशन के लिए नेताओं और अधिकारियों के साथ नजदीकियां बिठाना ये सब बातें भारतीय प्रेस और मीडिया की गुणवत्ता व स्तर में गिरावट का संकेत देती है। इसलिए लंबे समय से तीसरे प्रेस आयोग की मांग की जा रही है। हम चाहते हैं कि पत्रकारों की इस मांग को सरकार पूरा करें और तीसरे प्रेस आयोग गठन करें ताकि पत्रकारों और मीडिया के स्वरूप और कार्य के विस्तार को देखते हुए समीक्षा और मीडिया के संचालन के लिए नए सिरे से तीसरा प्रेस आयोग रूप रेखा तय करे। तीसरे प्रेस आयोग के गठन में प्रिंट, इलेक्ट्रॉनिक और डिजिटल मीडिया,पत्रकार संगठन— यूनियन के प्रतिनिधियों को शामिल किया जाए। मीडिया की विश्वसनीयता के लिए जरूरी है कि देश में जिस तरह से पत्रकारिता चल रही है उसे देखते हुए इसकी व्यापक समीक्षा की जानी चाहिए। नए सिरे से पत्रकारिता और पत्रकारों की परिभाषा को परिभाषित करने की आवश्यकता है। यह काम तभी होगा जब तीसरे प्रेस आयोग गठित होगा।
__( लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं और कई पत्रकार संगठन से जुड़े हुए हैं )

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